भारत और चीन ने उत्तराखंड में स्थित लिपुलेख दर्रे से एक बार फिर व्यापार शुरू करने का फैसला लिया है। यह निर्णय 18-19 अगस्त को भारत दौरे पर आए चीनी विदेश मंत्री वांग यी और भारतीय विदेश मंत्री के बीच हुई बातचीत के दौरान लिया गया। दोनों देशों ने लिपुलेख के अलावा शिपकी ला और नाथु ला दर्रों के माध्यम से भी व्यापार को बहाल करने पर सहमति जताई है।

नेपाल का विरोध और भारत का जवाब
इस समझौते पर नेपाल ने कड़ी आपत्ति जताई है। नेपाल का कहना है कि लिपुलेख, लिम्पियाधुरा और कालापानी उसके क्षेत्र का हिस्सा हैं। इसलिए, नेपाल ने भारत और चीन से इस क्षेत्र में किसी भी तरह की गतिविधि न करने की अपील की है।
इस पर भारत ने स्पष्टीकरण देते हुए कहा कि लिपुलेख दर्रे के रास्ते व्यापार 1954 से ही हो रहा है। हाल ही के वर्षों में, कोरोना महामारी और अन्य कारणों से यह व्यापारिक मार्ग बंद हो गया था, जिसे अब फिर से खोला जा रहा है। भारत ने यह भी साफ किया कि नेपाल के क्षेत्रीय दावे ऐतिहासिक तथ्यों पर आधारित नहीं हैं और ये एकतरफा दावे स्वीकार्य नहीं हैं। भारत ने नेपाल के साथ सीमा विवाद को बातचीत और कूटनीति के माध्यम से हल करने की इच्छा व्यक्त की है।

नेपाल के प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली अगले महीने भारत दौरे पर आएंगे। वे चीन में शंघाई सहयोग संगठन (SCO) शिखर सम्मेलन में हिस्सा लेने के बाद, 16 सितंबर को भारत पहुंच सकते हैं।हाल ही में, भारतीय विदेश सचिव विक्रम मिस्री ने काठमांडू का दौरा किया। उन्होंने प्रधानमंत्री ओली, विदेश मंत्री अर्जु राणा देउबा और विदेश सचिव अमृत बहादुर राय से मुलाकात की। इस दौरान, भारत-नेपाल के संबंधों को और मजबूत करने के तरीकों पर चर्चा हुई। खासकर कनेक्टिविटी, व्यापार और विकास सहयोग बढ़ाने जैसे मुद्दों पर बात की गई।उम्मीद है कि ओली के भारत दौरे के दौरान दोनों देशों के बीच कुछ महत्वपूर्ण समझौतों पर हस्ताक्षर हो सकते हैं। प्रधानमंत्री बनने के बाद यह उनका पहला भारत दौरा होगा, जो पिछले साल जुलाई से लगातार टल रहा था।
भारत और चीन ने दस साल में पहली बार लिपुलेख दर्रे से व्यापार फिर से शुरू करने पर चर्चा की है। इससे पहले, साल 2015 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की चीन यात्रा के दौरान, उन्होंने और तत्कालीन चीनी प्रधानमंत्री ली केकियांग ने लिपुलेख के रास्ते व्यापार बढ़ाने का समझौता किया था।उस समय भी नेपाल ने इस समझौते का कड़ा विरोध किया था, क्योंकि यह फैसला नेपाल की सहमति के बिना लिया गया था। विरोध जताते हुए नेपाल ने भारत और चीन दोनों को राजनयिक पत्र (डिप्लोमेटिक नोट) भेजे थे।