
सुप्रीम कोर्ट ने 11 अगस्त 2025 को एक अहम फैसला सुनाया, जिसमें दिल्ली-एनसीआर के सभी इलाकों से आवारा कुत्तों को हटाकर डॉग शेल्टर में रखने का निर्देश दिया गया। इस पर गायिका नेहा भसीन ने आपत्ति जताई और सवाल उठाया कि जब समाज में लड़के छेड़खानी करते हैं, तो उन्हें किसी शेल्टर में क्यों नहीं डाला जाता? उनका यह बयान समाज में व्याप्त दोहरे मापदंडों की ओर इशारा करता है।
नेहा भसीन ने क्या कहा?
गायिका नेहा भसीन ने सुप्रीम कोर्ट के उस आदेश पर जिसे 11 अगस्त 2025 को दो जजों की पीठ ने दिल्ली‑एनसीआर के सभी आवारा कुत्तों को आठ सप्ताह के भीतर "डॉग शेल्टर होम" में भेजने का निर्देश दिया था, गहरा तंज कसा। उन्होंने सोशल मीडिया (इंस्टाग्राम) पर अपने विचार साझा किए जिसमें उन्होंने इंसानों में व्याप्त हिंसा और उपेक्षा के प्रति चिंता जताई|
बताया कि एक स्ट्रे डॉग उन्हें गोवा बीच पर मिला था, जिसका सिर इंसानों ने तोड़ दिया था और उसे लाठी से प्रहार कर घायल कर दिया गया था। उन्होंने उस कुत्ते का इलाज करवाया। इसके बाद उन्होंने सवाल उठाया कि उस दर्द देने वाले इंसान को क्यों शेल्टर में नहीं डाला जाता |
उन्होंने यह भी साझा किया कि दिल्ली में अक्सर दिवाली के बाद कुत्ते जलते हुए पाए जाते हैं—जिनकी पूंछ तक बच्चे जला देते हैं—और वे दर्द में रोते रहते हैं। ऐसे बच्चों को क्यों नहीं शेल्टर में भेजा जाता?
सबसे संवेदनशील हिस्सा था जब उन्होंने तुलना की कि लड़कियां रात में खुलकर बाहर नहीं चल सकती क्योंकि लड़के छेड़खानी करते हैं, उठाकर वैन में ले जाते हैं—एक डर जो बचपन से सभी के अंदर है। फिर उन्होंने सवाल किया कि उन लड़कों को शेल्टर में क्यों नहीं भेजा जाता? या फिर पुलिस इतनी क्यों कमजोर है कि वे इस पर रोक नहीं लगा पाते?
उन्होंने आगे पूछा कि अगर तीन‑चार कुत्ते काट भी लें, तो क्या पूरी नस्ल को खत्म कर देना चाहिए? “अगर हमारी दया खत्म हो गई है, तो क्या हम इंसान हैं या मॉन्स्टर?” उन्होंने लिखा। लोकतंत्र का मतलब संवाद है, लेकिन यह एक सीधे आदेश के रूप में ईश्क की बेजुबान आत्मा—कुत्तों—पर लगाया जा रहा है। ऐसा करना न सिर्फ लोकतंत्र का उल्लंघन है बल्कि मानवता के खिलाफ भी है?
उनके इस बयान से स्पष्ट होता है कि वह इस निर्णय को केवल कानूनी कार्रवाई न समझें, बल्कि इसे एक सामाजिक चेतना और संवेदना से जोड़ते हुए देखना चाहती हैं। उन्होंने इंसानी न्याय, करुणा, और लोकतांत्रिक संवाद की बात उठाई है, और सवाल किए हैं कि क्या हम अपनी संवेदनशीलता नगर‑व्यवस्था से बाहर रख सकते हैं?
